दीपक मिश्रा
हरिद्वार, 30 जून।
उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, के भाषा एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान विभाग की ओर से अपनी ‘राष्ट्रीय व्याख्यानमाला’ के अंतर्गत “संत साहित्य के विविध आयाम” विषय पर ऑनलाइन व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान माला के विशिष्ट वक्ता प्रोफेसर संजीव कुमार ने कहा कि संत साहित्य में कहीं पर भी स्त्री को पुरुष से कमतर नहीं माना गया है किसी भी संत कवि ने स्त्री के प्रति निंदा भाव व्यक्त नहीं किया है।
कार्यक्रम में आमंत्रित विद्वान का स्वागत करते हुए भाषा एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष तथा विश्वविद्यालय के कुलानशासक, प्रो.दिनेश चंद्र चमोला ने कहा कि संत साहित्य जीवन की विपरीतताओं, प्रतिकूलताओं, भौतिकता व अज्ञानता से लोहा लेने का एक स्थायी दिव्यास्त्र है । अक्षर ब्रह्म की अंतर्मुखी साधना से जीवन-दर्शन को मूल्यवान बनाता है संत सहित्य। उन्होंने कहा कि यह वह संजीवनी है जो जीवन को दार्शनिक दृष्टि से जीने की अलौकिक शक्ति व मौलिक क्षमता प्रदान करता है। इस प्रकार के व्याख्यान न केवल विद्यार्थियों/शोधार्थियों के पाठ्य-सामग्री विषयक ज्ञान को संवर्धित करते हैं बल्कि जीवन को नए ढंग से जीने की नवीन दृष्टि भी प्रदान करते हैं। उन्होंने मा. कुलपति, प्रो.दिनेश चंद्र शास्त्री जी की ज्ञान परंपरा को समृद्ध करने के संकल्प की, इस श्रृंखला की सराहना की।
विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. संजीव कुमार, पीठ प्रोफेसर, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक ने संत साहित्य के विभिन्न बिंदुओं पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि ‘कबीरदास, रविदास, नानक देव, सूरदास आदि ने संतों ने शब्द को परोपकारी पुरुष के अर्थ में प्रयुक्त किया है। कबीर की ‘साखी’ के अनुसार नर, विषय-वासना, कामुकता, अमर्यादित कर, नर को नाग स्वरूप बनाती है जबकि साधु-संतों के संरक्षण में वही ‘संत’ बन जाता है। संतों ने ‘पर स्त्री गमन’ की निंदा की है, स्वनारी की नहीं। स्त्री, शक्ति, सृजन और जीवन का आधार है। हिंदी के संत कवियों ने आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों विषयों पर साहित्य के माध्यम से अपना वक्तव्य प्रकट किया है । उनका संपूर्ण सृजन परमात्मा की आराधना और उपासना है।
साधना की अवस्था में आत्मा ‘स्त्री’ और परमात्मा ‘पुरुष’ के पर्याय रूप में आते हैं। संत स्त्री और पुरुष के मध्य भेदभाव नहीं करते। सुंदर और कुछ नहीं। अविनाशी पुरुष विषय वासनाओं में ना खोऐं। जो स्त्री पति व्रत का पालन- धारण करती है वह अपने प्रियतम -पति को भाती है।
हिंदी साहित्य आज जिस फलक को छू रहा है उसे यही प्रमाणित होता है कि संत साहित्य के परिप्रेक्ष्य में अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों पर संतों ने व्यापक प्रहार किए हैं। मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा, मैथुन और कामिनी, भामिनी स्त्री की निंदा की है। कोई पिता पुत्र को इन सब से रोकने का प्रयत्न करता है और सत्य मार्ग पर रहने का ही प्रवचन देता है।
कर्म की श्रेष्ठता ही विपरीत परिस्थितियों में भी हमारे साथ होता है। इस प्रकार संत साहित्य, मानवता व मनुष्य को पहचानने का साहित्य है। अध्यात्म तो संत साहित्य के केंद्र में है। उन्होंने अध्यात्म और समाज दोनों विषयों पर अपने सर्जन को प्रकट किया है। व्याख्यान के अंत में प्रो संजीव कुमार ने शोधार्थियों और जिज्ञासु छात्र छात्राओं के प्रश्नों के उत्तर भी दिए।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलसचिव,श्री गिरीश कुमार अवस्थी ने कहा कि संत साहित्य को नए ढंग से परिभाषित कर प्रो. कुमार ने अपने चिंतन का परिचय देकर उपस्थित स्रोताओं का ज्ञानवर्धन किया है । विभाग द्वारा यह शृंखला छात्रों हेतु अत्यंत उपयोगी है । इस अवसर पर प्रो मंजुनाथ, डॉ सुशील उपाध्याय, डॉ सुमन प्रसाद भट्ट, श्री सुशील कुमार चमोली, डॉ रीना अग्रवाल, डॉ धीरज, डॉ प्रवेश कुमार, डॉ कमलेश पुरोहित, डॉ शिवचरण, प्रियंका, शोधार्थी अनूप बहुखंडी, पूजा, आरती सैनी, वंशिका, वैभव, रजनी, रागनी कुमारी, सागर, डॉ। माया मलिक, डॉ संतोष कुमारी, रश्मि हेगड़े, चंदमोहन, विवेक जोशी, गिरीश सती, अनीता, नरेंद्र थपलियाल, करण, जयप्रकाश, करिश्मा, बबीता आर्या, अंकित उनियाल, योगी दिवाकर आदि के छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।